![]() ![]() जाने कब गूंगे हुए एक अरसा हुआ अब चाहकर भी जुबाँ साथ नहीं देती अपनी आवाज़ सुने भी गुजर चुकी हैं जैसे सदियाँ ये बात न मुल्क की है न उसके बाशिंदों की लोकतंत्र लगा रहा है उठक बैठक उनके पायतानों पर और उनके अट्टहास से गुंजायमान हैं दसों दिशाएँ उधर निश्... |
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