![]() ![]() मुझे बचाने थे पेड़ और तुम्हें पत्तियां मुझे बचाने थे दिन और तुम्हें रातें यूँ बचाने के सिलसिले चले कि बचाते बचाते अपने अपने हिस्से से ही हम महरूम हो गए हो तो यूँ भी सकता था तुम बचाते पृथ्वी और मैं उसका हरापन सदियों के शाप से मुक्ति तो मिल जाती अब बोध की चौख... |
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