बचपन में एक बार बनारस गया था । दसवीं बोर्ड के बाद CHS की परीक्षा के सिलसिले में BHU का चक्कर लगा था । बनारस उस वक़्त मेरे लिए एक बड़ा शहर था । मेरे दिमाग में ये भी था कि यहाँ के रहने वाले लोग, लड़के, लड़कियाँ मुझसे काफी फॉरवर्ड होंगे । मुझे यह भी लगता था, यहाँ लड़के गाली नहीं देते ... |
कभी गौर किया है तुमने ? रात के कुछ ढलने के बाद कई बार एक तलब चढ़ती है… चाय या कॉफ़ी पीने की । ये वो तलब होती है जब चाय या कॉफ़ी में से कुछ भी मिल जाये तो काम हो जाता है । तुम्हारे पास ऑप्शन ढूंढने के कोई हालात बचते ही नहीं । जो भी सामने आता है वो तुम स्वीकार करते हो, या कहो कि उसमें ... |
हर गर्मी की कोशिश होती है ज़रा सी ठंढक में घुल जाना, और वैसी ही कोशिशठंढक की गर्मी की तरफ.… रात दिन में घुल जाती है और दिन बढ़ता है धीरे धीरे रात की तरफ.… समंदर का पानी भी घुल रहा है बादलों में,फिर.… बादल भी नदी में बहकर घुल जाते हैं समंदर में जीवन काल में घुल र... |
हम पैदा किए जा रहे हैं, ऐसे लगातार...जैसे फोटो स्टेट की मशीनऑटोमोड़ पर डाल रक्खीं हो |वो जितनी भी औरतें कर रक्खीं हैंपेट से हमने... हमारी गलती थी ही नहीं,हम कामुक इतने थे कि ये काम तो बकरी या किसी जानवर से भी ले लेते हम |ये जो रेंग रहे हैं, हमारे आस् पासहमें अपना 'बाप'... |
मुझे सफर के दौरान एक गाँव दिखता हैजो मेरा नहीं हैं …मैं थोड़ी देर रुककर देखता हूँ उसे ,गाँव में पसरी चाँदनीऔररुनझुन सन्नाटे के बीचदिखते हैं कई घरनजर आते हैं कुछ लोग |एक छोटा सा मैदान,बच्चों का ,पूरे दिन खेलकर थक गया है |एक हैंड पम्प जिसने उचक-उचक करपिलाया है दिन भर पानीदोन... |
हम सब अपनी लाइफ में कुछ नई कहानियों को बनाने के लिए कुछ अधूरी कहानियों को अपने पीछे छोड़ आते हैं । उनमें से कुछ तो वक़्त की मौत मारी जाती हैं , पर कुछ हिचकियाँ बनकर अलग अलग मौके पर आती रहती हैं, और एहसास दिलाती हैं कि वो कहानी शायद अभी भी कहीं न कहीं ज़िंदा हैं ।… तो मेरी ... |
(A piece written a year ago at write club, from where I got my Theatre thing started in Bangalore, Have a look)Monologue for scene.ज़िंदगी को परत दर परत उधेड़ता, बेचैन, आज इसकी आख़िर परत तक आ पहुँचा हूँ. पर वो शोर आज भी थमा नहीं है.शरीर ने कब का साथ देना छोड़ दिया था पर दिमाग़ की बेचैनी और तलाश रुकने का नाम नहीं लेती |कहीं का कहीं वो शोर सन्नाटा बन कर म... |
A rap written for one of my Play (Ice Paais) which was part of Short and Sweet Theatre festival, Bangalore 2015. Compositions was provided by the director of the play Sarbajeet Das. धुन...(धूम पिचक धूम.… पिचक धूम.… धूम पिचक धूमपिचक धूम.… धूम पिचक धूमपिचक धूम.… धूम पिचक धूम...)ये बेचारा आदत का मारा,डेमोक्रेसी के सपने लेकर फिरता रहता,मारा मारा(धूम पिचक धूम.… पिचक धूम.... |
कसाइयों की दुकानों के बाहर बास मारते दड़बे,पीभ, थूक, खून, लार से मवाद से हैं सने हुए … और उनके अंदर कुक्कड़ चुपचाप अपनी जगह पकड़ कोस रहे नसीब को |सड़क पर चलता आदमी उन्हें देख कर सोचता … गुस्सा इन्हें भी आता होगा,जब पंख नोचे जाते होंगे,जब अपने खूब चिल्लाते होंगे,जब थर थर करती गरद... |
तुम्हें अक्सर कहते सुना है - ज़िंदगी के सफर में बहुत लेट हो गई हूँ मैं।मैं अपनी रेल बचाकर लाया हूँइस शातिर दुनिया की नज़रों से,आओ मेरा हाथ पकड़ चल चलो,एक सफर के लिए। आओ ना ।© Neeraj Pandey... |
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January 17, 2015, 5:30 pm |
किताबों को उनके किये की सजा मिल रही है ।बिन बुलाये मेहमान सीहालत है अब इनकी ।किताबें सवाल करती थीं । पूछती, मुझसे मेरे होने का मकसद ।बतलाती, दुनिया में कितनी भूख मरी है। समझती, कि लाल और नीली गोलियों में फर्क होता है। हिलाती, मान्यताएँ और झझकोरती कम्फर्ट जोन को ।पर स्क... |
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December 24, 2014, 2:42 pm |
बाग़ में खेलते हुए रंगीन बादलों को देख हैरान होता था वो। उडते पंछी आदर्श थे उसके,वो छुना चाहता था आसमान,गढ़ना चाहता था बादल। तरीका? उसे पता कहाँ था । उसके सपनों से अनजान,जीवन की ज़रूरतों ने बतलाया उसे कि ये पेड़ ऊपर तक जाता है। आसमान पाने की चाहत में, चढ़ता र... |
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December 19, 2014, 10:10 pm |
वो मशीन के हर पुर्ज़े को कसता है अक्सर बड़ी तरकीबों से । पेंच चढ़ाता है । और एहसास दिलाता है उन्हें कि वो उस मशीन का एक हिस्सा हैं बस । पसंद किसी पुर्जे को नहींइस तरह से कसा जाना । अपना राग खोकर , किसी और की धुन पर गाना । पर कहता है वो बिन कसे पुर्ज़े ठीक से क... |
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November 18, 2014, 8:37 am |
तो कहते हो तुम तुम्हारा खुदा है कोई |हाँ... देखा है मैंने उसे अक्सर अलग अलग अवतारों में,तुम्हारी शक्ल पर दिखता है और आदत बनकर साथ ही रहता है |कभी तुम्हारी ज़रूरतों में,तो कभी तुम्हारे डर मेंउसे पनपते और बढ़ते हुए अक्सर देखा है मैनें |तुम्हारे आँख, नाक, कान तोसही ग़लत ... |
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November 15, 2014, 11:06 am |
अपने किये पर शर्मिन्दा है शायद,और आत्मग्लानि से भरा हुआ भी।तभी तो अपना सर झुकाचुपचाप खड़ा हैमैदान के उस कोने में।जिसकी छाती से सारे पेड़ उजाड़खोदा था उसके गर्भ तक इसने बाँझ बनाया था।अब सरिया घुस रहा हैउस धरा के जिस्म में,और कहने को सीमेंट के मसालेभरे जा रहे हैं,किसी मरह... |
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October 16, 2014, 5:51 pm |
उस नन्हें से बीज नेअपनी एक पत्ती निकालपास ही के बड़े पेड़ को देखा,हाथ हिलाकर 'हैलो'भी कहाऔर उसने भी जवाब मेंएक फूल गिरालंबी उम्र का आशीर्वाद दिया|सपनों में था इसके अबबिल्कुल ऐसा ही बनना है,घना,बड़ा,शानदार...अपने जिस्म पर घोंसले रखआशियाना देगा कभीकिसी चिड़ीए के परिवा... |
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October 14, 2014, 11:35 pm |
वोकूड़ेवालाहररोज़सुबहआकरलेजाताहैहमाराकूड़ा,वोकूड़ाजोहमारीअपनीपैदाइशहै|औरहमभीअपनीनाकसिकोडतेडालआतेहैंइसेउसकेट्रकमेंघरकेबाहर, हरसड़कपर, हरनुक्कड़परमुलाकातहोतीहै इन कूड़ेकेढेरोंसेपरबचबचकेचलतेहैंसभीकिकहींपाँवभीनालगजाए|औरकोईयहबोलनेकोतैयार नह... |
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October 9, 2014, 11:53 pm |
कॉरमंगलाकीएकसड़कपरजहाँमहँगीगाड़ियाँदौड़तीहैंपिज़्ज़ाहटकेठीकसामनेएकऔरवैसीहीबिल्डिंगबनरहीहै,शानदार, उँची, चमचमाती|खबरहैइसमेंडोमिनोज़खुलेगाचीज़ब्र्स्टकेसाथएसीकीहवाखानेकाएकऔरठिकानामिलजाएगामुझेऔरमेरेदोस्तोंको|सोशल, एकनॉमिकल, पोलिटिकलचर्चाओंकेबीच... |
ये इतने सारे घर हैं?... ... या किताबें ?ठीक ठीक कहना मुश्किल है. दोनों में बाहर कवर है और अंदर किरदार बसते हैं और हर दीवार किताब के पन्नों की तरह अपने ही अंदर छुपाए हुए है कई कहानियाँ. ड्रामा, ट्रॅजिडी, रोमॅन्स, कॉमेडी... इनकी तो शॉर्ट स्टोरी भीलाइफ लॉंग चलती है. अलग अलग अध्यायो... |
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October 1, 2014, 12:25 am |
वो चेहरे अब धुंधले से दिखते हैं मानों कोहरे में खड़ा हो कोई .गौर से देखता हूँ पर ठीक से पहचान नहीं पाता| वक़्त ने उन यादों पर भी मानों धूल सी जमा दी हैं. ...अब चाहे अच्छे थे या बुरे बीती रात के सपने किसे याद रहते हैं.© Neeraj Pandey... |
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October 1, 2014, 12:15 am |
कुछ स्वमैथुन के मारे बेचारों को लगता है,कि सूरज उनके लिंग के चक्कर काटता है,क्योंकि वो किसी एक विशेष योनि की पैदाइश हैं.ईश्वर से सीधा नाता है इनका,और स्वर्ग में सीटें आरक्षित हैं इनकी.जिस ईश्वर को इन्होनें कभी जाना ही नहींऔर ना ही जानने की कोशिश कीबस सच से आँखें मुन्दे ... |
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September 2, 2014, 12:14 am |
वो आयीं और लौट कर चली गयींपर मैं ही उस वक़्त कहीं और था.अभी भी कहीं हैं मेरे अंदर हीकुछ नज़मेँ जो अपना आकार नहीं ले पाईं हैं.जब भी थोड़ा इतमीनान से बैठता हूँहिचक़ियों से उनके होने का एहसास होता हैजैसे मेरे अंदर ही कहीं पलने लगी हैं येपर ढंग से बाहर नहीं आतीं.जी में आता है ... |
तब जब सही और ग़लत का मतलब ना होगातब जब दोनों बातों में कोई फ़र्क ना होगा.तब जब यहाँ का सबकुछ ख़तम हो रहा होगातब जब कोई और लोक मुझे बुला रहा होगातब जब मेरे जाने की तैयारी हो रही होगीतब जब मुझे कोई और आरजू ना होगीतब जब सबको लगेगा मुझे बिल्कुल भी होश नहींउस वक़्त मैं वो लम्हे ... |
वो दोनों अक्सर दिख जाते हैंएक दूसरे का बोझ उठाते,सड़कों पर भटकतेहमसे अपने हिस्से का कुछ माँगते.वक़्त ने कमर झुका दी है इनकीखुद अपना भार भी नहीं उठा पाते अब.इनके कपड़े और हालात हरदिन एक से होते हैंवो बूढ़ा तो ठीक से बोल भी नहीं पताआँखो मे भी मोतियाबिंद लगता है उसके,पर बु... |
गर तुम देख पाते उस सही और ग़लत के पारतो तुम्हें दिखता कितना सुकून है वहाँ.इंसान बस इंसान है वहाँभगवान बनने की चाहत में हैवान नहीं.सबसे मोहब्बत कर पाते तुम भी और गर ना भी हो तो नफ़रत की कोई गुंजाइश ना होती.वक़्त को साँचे में ढाल कर उसका मोल नहीं लगातेना ही बहती ज़िंदगी... |
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